ग़ज़ल
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हीरालाल यादव हीरा
चाँद ख़ुश और चाँदनी ख़ुश है
ज़िन्दगी देख, ज़िन्दगी ख़ुश है
जाने क्या बात है भला क्योंकर
आदमी से न आदमी ख़ुश है
मैं भी हूँ शादमाँ तुम्हें पा कर
मिल के सागर से ज्यों नदी ख़ुश है
जिसको अपना समझ रहे थे हम
बन के शायद वो अजनबी ख़ुश है
चंद सिक्कों के मोह में दुनिया
झूठ की कर के पैरवी ख़ुश है
त्याग महलों को,वन मे आ कर भी
राम के साथ जानकी ख़ुश है
ख़ुद की करनी पे रोएगा हीरा
मूँद कर आँख जो अभी ख़ुश है