Friday, January 3, 2025
अपराध

दिल्ली हाईकोर्ट का प्रशंसनीय फैसला ‘बाप का घर आपका नहीं’

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तंत्रता के 70 वर्ष बाद भी देश में बुजुर्ग अपनी संतान के हाथों उपेक्षा और उत्पीडऩ का शिकार हैं। अनेक राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार द्वारा ‘माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम-2007’ लागू करने के 9 वर्ष बाद भी संतानों द्वारा इसका पालन नहीं करने से बड़ी संख्या में बुजुर्ग अपने ही घर में बेगाने हो कर रह गए हैं। अक्सर संतानें जायदाद अपने नाम लिखवा कर माता-पिता की ओर से आंखें फेर कर उन्हें जीवन की संध्या अत्यंत दयनीय हालत में बिताने के लिए छोड़ देती हैं। जिन बुजुर्गों के बच्चे उन्हें अपने पास रखते भी हैं उनकी हैसियत भी घर में चौबीस घंटे के मुफ्त के नौकर की होकर रह जाती है।  पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री शांति स्वरूप दीवान को अपने बेटे से चंडीगढ़ के सैक्टर 11 में स्थित अपनी कोठी खाली करवाने के लिए न्यायपालिका से गुहार करनी पड़ी थी। इस पर न्यायमूर्ति पीएस ढींडसा ने चंडीगढ़ के एसएसपी को स्वयं उनके घर जा कर यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया था कि जस्टिस दीवान और उनकी पत्नी का जीवन नरक न बने। संतानों द्वारा अपने बुजुर्गों के उत्पीडऩ के चंद ताज़ा उदाहरण निम्र हैं :
11 जून 2016 को उत्तर प्रदेश के ललितपुर के एक गांव में शराबी बेटे ने अपने बूढ़े माता-पिता को पीट कर घर से निकाल दिया। 17 सितम्बर को मुरादनगर की 70 वर्षीय रामेश्वरी देवी ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाई कि जब उसने अपनी जमीन अपने बेटे के नाम करने से इंकार कर दिया तो उसके बेटे ने उसे घर से निकाल दिया। 16 नवम्बर को भोपाल की 85 वर्षीय सुकई बाई को उसके बेटों, बहुओं और पोतों ने मारपीट करके घर से निकाल दिया। 30 अक्तूबर को नवादा (बिहार) की शकीला खातून ने अपने बेटे जावेद द्वारा मारपीट कर घर से निकाल देने की शिकायत पुलिस में दर्ज करवाई। 24 नवम्बर 2016 को बिहार के पूर्णिया में एक बेटे ने अपने बूढ़े माता-पिता के पुश्तैनी मकान पर कब्जा करने के बाद अपनी पत्नी के साथ मिल कर आधी रात के समय उस घर में आग लगा दी जहां वे दोनों सो रहे थे।
ऐसे ही घटनाक्रम को देखते हुए अब 29 नवम्बर को सुनाए एक ऐतिहासिक फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट की मान्य न्यायाधीश प्रतिभा रानी ने कहा है कि ‘‘बेटे का अपने माता-पिता के खुद के अर्जित किए गए घर पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है और वह केवल उनकी ‘दया’ पर ही वहां रह सकता है।’’
न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी ने उक्त फैसले में सम्पत्ति से बेदखल बेटे की याचिका रद्द करते हुए निचली अदालत के उस फैसले को बहाल रखा जिसने बेटे को अपने पिता का घर खाली करने का आदेश दिया था। पीड़ित माता-पिता ने निचली अदालत को बताया था कि उनके दोनों बेटों और बहुओं ने उनका जीवन नरक बना दिया है और वे ‘पब्लिक नोटिस’ के जरिए भी उन्हें अपनी प्रापर्टी से बेदखल कर चुके हैं।  न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी ने आगे कहा, ‘‘माता-पिता द्वारा संबंध अच्छे होने के समय बेटे को घर में रहने की अनुमति देने का यह मतलब नहीं है कि संबंध बिगड़ जाने पर भी माता-पिता जीवन भर उसका ‘बोझ’ उठाएं।’’ ‘‘जहां माता-पिता ने खुद कमा कर घर लिया है तो बेटे को, चाहे वह विवाहित हो या कुंवारा, उस घर में रहने का कानूनी अधिकार नहीं और वह केवल तभी तक वहां रह सकता है जब तक वे उसे रहने की अनुमति दें।’’ये घटनाएं तो उदाहरण मात्र हैं, इनके अलावा भी ऐसी असंख्य घटनाएं हुई होंगी जो प्रकाश में नहीं आ पाईं। ऐसी ही घटनाओं को देखते हुए पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति परमजीत सिंह ने माता-पिता की उपेक्षा के एक मामले में फैसला सुनाते हुए यह नसीहत की थी कि:
‘काहे पूत झगड़त हो संग बाप,
जिनके जने बडीरे तुम हो,
तिन सो झगड़त पाप’
इस समय देश में बुजुर्गों की संख्या लगभग 10.38 करोड़ है। ऐसे में बुजुर्गों का सम्मान बना रहे व उनकी देखभाल होती रहे, इसे सुनिश्चित बनाने के लिए इस तरह के फैसलों के साथ-साथ सरकार को इस बारे और अधिक प्रभावशाली नीतियां बनाने की तत्काल आवश्यकता है।