बहन कलाई पर भाई के राखी बांध रही है
रवि यादव
स्वर्णिम संस्कृति,सौम्य सभ्यता, भारत की पहचान।
पुनीत पर्व की परिपाटी पर, भावों के परिधान ।।
गुलशन में भृंगन के गुंजन, कलियों पर मुस्कान।
पवन प्रभाती महक मलयगिरी, से ले,भरी उड़ान।।
विमल इन्दु की किरण और, उजले असंख्य से तारे।
को समेट कर करवट लेती, रजनी एक किनारे।।
धन्य किया है वसुन्धरा को, फिर से नया विहान।
उदित हुए दिनमान तो जगमग-जगमग हुआ जहान।।
ग्वाल बाल मंडली है गोकुल की दिखती घर-घर में।
सारे नव निहाल किलकारी करते पंचम स्वर में।।
आज विहग- खग पीछे हैं, जग से,जगने में,सो कर।
इन्तजार में सहोदरा के, हैं हर एक सहोदर।।
पूजा के सामान से सुंदर, सजी है पीतल-थाल।
रोली,चंदन,कुमकुम, से सज गए सुकोमल भाल।।
दीप जलाकर दिव्य रूप तक लाकर नजर उतारे।
अपलक होकर सजिल सलोने को अनवरत निहारे।।
जैसे सूर्यमुखी है तकता, रहता रवि कि ओर।
जैसे चंदा पर है गड़ाये, रहता नैन चकोर।।
निश्छलता और प्रबल प्रेम, की यह प्रतिबिम्ब सुनहरी।
थाह नहीं कुछ इसकी पावनता है कितनी गहरी।।
अपने हाथों से मणि को सोने पर साध रही है।
बहन कलाई पर भाई के राखी बांध रही है।।