Sunday, December 22, 2024
कविता

भारत मां के आंचल की कुछ गौरव गाथा गाता हूं

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गौरवगाथा
सुन लो सुनने वालो मैंकुछ बातें आज सुनाता हूं
भारत मां के आंचल की कुछ गौरव गाथा गाता हूं

खेला कूदा बचपन में जिन बड़ेबड़े मैदानों में,
मार मार किलकारी पहुंचा जिन खेतों खलियानों में।
उन सब की मिट्टी को पहले माथे तिलक लगाता हूं।
फिर गौरव गाथा गाता हूं।

अब गंगाजमुना में नहाकर मैं पाक साफ़ हो जाता हूं
आसामी हरियाली में जाकर बागबाग हो जाता हूं।
और बंगाली बोस को भी मैं शत् शत् शीश नवाता हूं
इक गौरव गाथा गाता हूं।

हिन्द महासागर के तट पर भी मैं मौज उड़ाता हूं
बंगलौर के बागों में कर ख़ूशबू से तर हो जाता हूं
हां, कृष्णकावेरी में भी मैं गोते ख़ूब लगाता हूं
भारत माँ के आंचल की कुछ गौरव गाथा गाता हूं।

विंध्याचल और झााँसी के जंगल में भी मैं जाता हूं
खेलूं बाघों के संग में शेरों से हाथ मिलाता हूं
पर शेर की इक बच्ची के घर के आगे मैं झुक जाता हूं।

और भूल जाना राणा और हल्दी की भी उस घाटी को।
पूज रहे हैं बड़े बड़े मरू भूमि की उस माटी को।
संकल्प लिया था क्या उसने मैं ये भी तुम्हें बताता हूं
मार ना लूं दुश्मन को तो घर वापस मैं नहीं आऊंगा
सोऊंगा धरती पर तब तक घास की रोटी खाऊंगा
मैं घास की रोटी खाऊंगा।
मैं नंगी तलवार और हिनकता चेतक याद दिलाता हूं
एक गौरव गाथा गाता हूं।

अब उत्तर में भी चलते हैं, एक और सफर भी करते हैं।
नदियां, नाले, झरने देखते पहाड़ों पर भी चढ़ते हैं
सिर का आंचल ऐसे लगता अभी बुलाता है मुझे
यह कितना सुंदर कितना उज्जवल बहुत लुभाता है मुझको।
ये बहुत लुभाता है मुझको।
ये देख हिमालय हिम आच्छादित गदगद मैं हो जाता हूं
हाँ गदगद मैं हो जाता हूं।

अब घाटी में कुछ कफरते हैं मुख मण्डल दर्शन करते हैं
फिर शूर वीरों में होते हुए सिंधों से भी मिलते हैं

टूटीफूटी पंजाबी भी यारों मैं बोल लेता हूं
अंग्रेज़ी बोलने वालों की भी बात को मैं तोल लेता हूं
मैं हिंदी में भी लिखता हूं और उर्दू में भी गाता हूं
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सबसे हाथ मिलाता हूं
मैं सब से हाथ मिलाता हूं।

खेतों बागों खलिहानों में ख़ूब मेरा मन लगता है
शहर के भीड़ भड़क्के में मेरा दम सा घुटने लगता है
अरे दूध दही मैं पीता हूं और घी शक्कर मैं खाता हूं
हूं तो भारतवासी ही पर हरियाणवी कहलाता हूं
मैं हरियाणवी कहलाता हूं।
भारत मैं के आंचल की गौरव गाथा गाता हूं।

गीतकारगाफ़िल हरियाणवी (तख़ल्लुस)