Wednesday, October 23, 2024
कविता

चलो हाथरस, मंसूरी को मारो गोली

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देवी जी कहने लगीं, कर घूँघट की आड़

हमको दिखलाए नहीं, तुमने कभी पहाड़

तुमने कभी पहाड़, हाय तकदीर हमारी

इससे तो अच्छा, मैं नर होती, तुम नारी

कहँ ‘काका’ कविराय, जोश तब हमको आया

मानचित्र भारत का लाकर उन्हें दिखाया

देखो इसमें ध्यान से, हल हो गया सवाल

यह शिमला, यह मसूरी, यह है नैनीताल

यह है नैनीताल, कहो घर बैठे-बैठे-

दिखला दिए पहाड़, बहादुर हैं हम कैसे ?

कहँ ‘काका’ कवि, चाय पिओ औ’ बिस्कुट कुतरो

पहाड़ क्या हैं, उतरो, चढ़ो, चढ़ो, फिर उतरो

यह सुनकर वे हो गईं लड़ने को तैयार

मेरे बटुए में पड़े, तुमसे मर्द हज़ार

तुमसे मर्द हज़ार,मुझे समझा है बच्ची ?

बहका लोगे कविता गढ़कर झूठी-सच्ची ?

कहँ ‘काका’ भयभीत हुए हम उनसे

ऐसे अपराधी हो कोतवाल के सम्मुख जैसे

आगा-पीछा देखकर करके सोच-विचार

हमने उनके सामने डाल दिए हथियार

डाल दिए हथियार, आज्ञा सिर पर धारी

चले मसूरी, रात्रि देहरादून गुजारी

कहँ ‘काका’, कविराय, रात-भर पड़ी नहीं कल

चूस गए सब ख़ून देहरादूनी खटमल

सुबह मसूरी के लिए बस में हुए सवार

खाई-खंदक देखकर, चढ़ने लगा बुखार

चढ़ने लगा बुखार, ले रहीं वे उबकाई

नींबू-चूरन-चटनी कुछ भी काम न आई

कहँ ‘काका’, वे बोंली, दिल मेरा बेकल है

हमने कहा कि पति से लड़ने का यह फल है

उनका ‘मूड’ खराब था, चित्त हमारा खिन्न

नगरपालिका का तभी आया सीमा-चिह्न

आया सीमा-चिह्न, रुका मोटर का पहिया

लाओ टैक्स, प्रत्येक सवारी डेढ़ रुपैया

कहँ ‘काका’ कवि, हम दोनों हैं एक सवारी

आधे हम हैं, आधी अर्धांगिनी हमारी

बस के अड्डे पर खड़े कुली पहनकर पैंट

हमें खींचकर ले गए, होटल के एजेंट

होटल के एजेंट, पड़े जीवन के लाले

दोनों बाँहें खींच रहे, दो होटल वाले

एक कहे मेरे होटल का भाड़ा कम है

दूजा बोला, मेरे यहाँ ‘फ्लैश-सिस्टम’ है

हे भगवान ! बचाइए, करो कृपा की छाँह

ये उखाड़ ले जाएँगे, आज हमारी बाँह

आज हमारी बाँह, दौड़कर आओ ऐसे

तुमने रक्षा करी ग्राह से गज की जैसे

कहँ ‘काका’ कवि, पुलिस-रूप धरके प्रभु आए

चक्र-सुदर्शन छोड़, हाथ में हंटर लाए

रख दाढ़ी पर हाथ हम, देख रहे मजदूर

रिक्शेवाले ने कहा, आदावर्ज हुजूर

आदावर्ज हुजूर, रखूँ बिस्तरा-टोकरी ?

मसजिद में दिलवा दूँ तुमको मुफ्त कोठरी ?

कहँ ‘काका’ कवि, क्या बकता है गाड़ीवाले

सभी मियाँ समझे हैं तुमने दाढ़ी वाले ?

चले गए अँगरेज पर, छोड़ गए निज छाप

भारतीय संस्कृति यहाँ सिसक रही चुपचाप

सिसक रही चुपचाप, बीवियां घूम रही हैं

पैंट पहनकर ‘मालरोड’ पर झूम रही हैं

कहँ ‘काका’, जब देखोगे लल्लू के दादा

धोखे में पड़ जाओगे, नर है या मादा

बीवी जी पर हो गया फैसन भूत सवार

संडे को साड़ी बँधी, मंडे को सलवार

मंडे को सलवार, बॉबकट बाल देखिए

देशी घोड़ी, चलती इंगलिश चाल देखिए

कहँ ‘काका’, फिर साहब ही क्यों रहें अछूते

आठ कोट, दस पैंट, अठारह जोड़ी जूते

भूल गए निज सभ्यता, बदल गया परिधान

पाश्चात्य रँग में रँगी, भारतीय संतान

भारतीय संतान रो रही माता हिंदी

आज सुहागिन नारि लगाना भूली बिंदी

कहँ ‘काका’ कवि, बोलो बच्चो डैडी-मम्मी

माता और पिता कहने की प्रथा निकम्मी

मित्र हमारे मिल गए कैप्टिन घोड़ासिंग

खींच ले गए ‘रिंक’ में देखी स्केटिंग

देखी स्केटिंग,हृदय हम मसल रहे थे

चंपो के संग मिस्टर चंपू फिसल रहे थे

काकी बोली-क्यों जी, ये किस तरह लुढ़कते

चाभी भरी हुई है या बिजली से चलते ?

हाथ जोड़ हमने कहा, लालाजी तुम धन्य

जीवन-भर करते रहो, इसी कोटि के पुन्य

इसी कोटि के पुन्य, नाम भारत में पाओ

बिना टिकट, वैकुंठ-धाम को सीधे जाओ

कहँ काकी ललकार-अरे यह क्या ले आए

बुद्धू हो तुम, पानी के पैसे दे आए ?

हलवाई कहने लगा, फेर मूँछ पर हाथ

दूध और जल का रहा आदिकाल से साथ

आदिकाल से साथ, कौन इससे बच सकता ?

मंसूरी में खालिस दूध नहीं पच सकता

सुन ‘काका’, हम आधा पानी नहीं मिलाएँ

पेट फूल दस-बीस यात्री नित मर जाएँ

पानी कहती हो इसे, तुम कैसी नादान ?

यह, मंसूरी ‘मिल्क’ है, जानो अमृत समान

जानो अमृत समान, अगर खालिस ले आते

आज शाम तक हम दोनों निश्चित मर जाते

कहँ ‘काका’, यह सुनकर और चढ़ गया पारा

गर्म हुईं वे, हृदय खौलने लगा हमारा

उनका मुखड़ा क्रोध से हुआ लाल तरबूज

और हमारी बुद्धि का बल्ब हो गया फ्यूज

बल्ब हो गया फ्यूज, दूध है अथवा पानी

यह मसला गंभीर बहुत है, मेरी रानी

कहँ ‘काका’ कवि, राष्ट्रसंघ में ले जाएँगे

अथवा इस पर ‘जनमत-संग्रह’ करवाएँगे

शीतयुद्ध-सा छिड़ गया, बढ़ने लगा तनाव

लालबुझक्कड़ आ गए, करने बीच-बचाव

करने बीच-बचाव, खोल निज मुँह का फाटक

एक साँस में सभी दूध पी गए गटागट

कहँ ‘काका’, यह न्याय देखकर काकी बोली

चलो हाथरस, मंसूरी को मारो गोली