Monday, December 23, 2024
कविता

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला

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शिवमंगल सिंह सुमन

घर-आँगन सब आग लग रही

सुलग रहे वन-उपवन

दर-दीवारें चटख रही हैं

जलते छप्पर-छाजन।

तन जलता है, मन जलता है

जलता जन-धन-जीवन

एक नहीं जलते सदियों से

जकड़े गर्हित बंधन।

दूर बैठकर ताप रहा है,

आग लगानेवाला।

मेरा देश जल रहा,

कोई नहीं बुझानेवाला।

 

भाई की गर्दन पर

भाई का तन गया दुधारा

सब झगड़े की जड़ है

पुरखों के घर का बँटवारा।

एक अकड़ कर कहता

अपने मन का हक़ ले लेंगे

और दूसरा कहता

तिलभर भूमि न बँटने देंगे।

पंच बना बैठा है घर में,

फूट डालनेवाला।

मेरा देश जल रहा,

कोई नहीं बुझानेवाला।

 

दोनों के नेतागण बनते

अधिकारों के हामी

किंतु एक दिन को भी

हमको अखरी नहीं ग़ुलामी।

दानों को मोहताज हो गए

दर-दर बने भिखारी

भूख, अकाल, महामारी से

दोनों की लाचारी।

आज धार्मिक बना,

धर्म का नाम मिटानेवाला।

मेरा देश जल रहा,

कोई नहीं बुझानेवाला।

 

होकर बड़े लड़ेंगे यों

यदि कहीं जान मैं लेती

कुल-कलंक-संतान

सौर में गला घोंट मैं देती।

लोग निपूती कहते पर

यह दिन न देखना पड़ता

मैं न बंधनों में सड़ती

छाती में शूल न गड़ता।

बैठी यही बिसूर रही माँ,

नीचों ने घर घाला।

मेरा देश जल रहा,

कोई नहीं बुझानेवाला।

 

भगत सिंह, अशफ़ाक़,

लालमोहन, गणेश बलिदानी

सोच रहे होंगे, हम सबकी

व्यर्थ गई क़ुर्बानी।

जिस धरती को तन की

देकर खाद, ख़ून से सींचा

अंकुर लेते समय, उसी पर

किसने ज़हर उलीचा।

हरी भरी खेती पर ओले गिरे, पड़ गया पाला।

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला।

 

जब भूखा बंगाल, तड़प

मर गया ठोककर क़िस्मत

बीच हाट में बिकी

तुम्हारी माँ बहनों की अस्मत।

जब कुत्तों की मौत मर गए

बिलख-बिलख नर-नारी

कहाँ कई थी भाग उस समय

मर्दानगी तुम्हारी।

तब अन्यायी का गढ़ तुमने

क्यों न चूर कर डाला।

मेरा देश जल रहा,

कोई नहीं बुझाने वाला।

 

पुरखों का अभिमान तुम्हारा

और वीरता देखी,

राम-मुहम्मद की संतानो

व्यर्थ न मारो शेख़ी।

सर्वनाश की लपटों में

सुख-शांति झोंकनेवालो

भोले बच्चों, अबलाओं के

छुरा भोंकनेवालो।

ऐसी बर्बरता का

इतिहासों में नहीं हवाला।

मेरा देश जल रहा,

कोई नहीं बुझानेवाला।

 

घर-घर माँ की कलख

पिता की आह, बहन का क्रंदन

हाय, दुधमुँहे बच्चे भी

हो गए तुम्हारे दुश्मन?

इस दिन की ख़ातिर ही थी

शमशीर तुम्हारी प्यासी?

मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी

रहे न भारतवासी।

हँसते हैं सब देख ग़ुलामों का यह ढंग निराला।

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला।

 

जाति-धर्म-गृह-हीन

युगों का नंगा-भूखा-प्यासा

आज सर्वहारा तू ही है

एक हमारी आशा।

ये छल-छंद शोषकों के हैं

कुत्सित, ओछे, गंदे

तेरा ख़ून चूसने को ही

ये दंगों के फँदे।

तेरा एका, गुमराहों को राह दिखानेवाला।

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला।