साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी पर फिर से विचार करना समय की मांग : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति वी रमासुब्रण्यम ने कहा है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी के प्रावधानों पर फिर से विचार करना समय की मांग है। उन्होंने संबंधित प्रावधान की अनिवार्य प्रकृति को बरकरार रखने के निर्णय में सहमति का फैसला सुनाते हुए यह बात कही। यद्यपि न्यायमूर्ति रमासुब्रमण्यम ने ‘अर्जुन पंडितराव खोतकर बनाम कैलाश कुशनराव गोरांत्याल’ मामले में न्यायमूर्ति रोहिंगटन फली नरीमन द्वारा लिखे गये उस फैसले से सहमति जतायी, जिसमें कोर्ट ने व्यवस्था दी कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी(4) के तहत प्रमाणन की आवश्यकता इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड संबंधी साक्ष्यों की स्वीकार्यता की पूर्व शर्त होती है, लेकिन उन्होंने अपने विचार निम्न प्रकार से व्यक्त किये :-
दुनिया के प्रमुख क्षेत्राधिकारों ने समय के बदलाव एवं प्रौद्योगिकी के विकास को ध्यान में रखा है और अपने कानूनों में उसके अनुरूप सुधार किये हैं। इसलिए, यह समय की मांग है कि वर्ष 2000 में (संसद में) 21वें अधिनियम के तौर पर पारित ‘भारतीय साक्ष्य अधिनियम’ की धारा 65बी पर फिर से विचार किया जाये, क्योंकि पिछले 15 सालों में नवजोत संधू से लेकर अनवर पी. वी., टोमासो बर्नो से सोनू और शफी मोहम्मद तक इस कानून की समीक्षा बदलते रहने के कारण न्यायिक उथल-पुथल पैदा हुए हैं।”
न्यायमूर्ति रमासुब्रमण्यम ने अपने लिखित फैसले में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता को लेकर अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा में हुए विधायी घटनाक्रमों की समीक्षा भी की। उन्होंने कहा कि दुनिया के देशों ने समय बीतने के साथ अपने कानून को समुचित तरीके से संशोधित करके कानूनी परिदृश्य में बदलाव किये हैं, ताकि भ्रम या टकराव की स्थिति से बचा जा सके। जज ने कहा कहा कि धारा 65बी का मौजूदा स्वरूप ‘यूनाइटेड किंगडम सिविल एविडेंस एक्ट, 1968’ की धारा 5 की बहुत ही खराब प्रतिकृति है। न्यायमूर्ति रमासु्ब्रमण्यम ने लिखा, “जब 2000 में हमारे कानूननिर्माताओं ने यूके सिविल एविडेंस एक्ट, 1968 की धारा पांच की भाषा को काफी हद तक अंगीकार करके सूचना प्रौद्योगिकी विधेयक पारित किया था, तब तक संबंधित प्रावधान यूके सिविल एविडेंस एक्ट, 1995 में निरस्त कर दिया गया था और यहां तक कि सुने-सुनाये साक्ष्य को मंजूरी देने के लिए 1999 में पुलिस एवं आपराधिक साक्ष्य अधिनियम, 1984 की धारा 69 को निरस्त करके संबंधित कानून को संशोधित किया चुका था।
जज ने यह भी कहा कि अमेरिका में कानून में बदलाव यह दर्शाता है कि भारत से उलट, वहां कानून ने प्रौद्योगिकी में बदलाव के साथ काफी हद तक तालमेल बनाये रखा है। उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी) के तहत अनिवार्यता कनाडा के कानून में भी मौजूद है, लेकिन वहां के कानून में बहुत ही महत्वूपर्ण अंतर पाया गया है। न्यायमूर्ति रमासुब्रमण्यम ने कहा, “धारा 31.3(बी) ऐसी परिस्थितियों का ख्याल रखती है जहां एक पार्टी द्वारा इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज रिकॉर्ड अथवा स्टोर किया जाता है, जो उसे पेश करने की मांग कर रही दूसरी पाटी के हित के प्रतिकूल है। इसी तरह धारा 31.3(सी) इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज पर भरोसा करने वाली पार्टी को यह साबित करने की छूट देती है कि संबंधित इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज उस व्यक्ति द्वारा रिकॉर्ड या स्टोर किया गया था जो इस मामले में पार्टी नहीं था और उसने इस तरह के दस्तावेज को पेश करने की मांग कर रही पार्टी के कहने पर रिकॉर्ड या स्टोर नहीं किया था।”धारा 65बी की तीक्ष्णता के पीछे का तर्क कानूनी मुद्दे का जवाब देते हुए जज ने कहा कि धारा 136 के विपरीत, धारा 65(बी)(1) अन्य प्रावधानों के इस्तेमाल को छोड़कर ‘नन-ऑब्सटेंट क्लॉज’ (इसके अलावा कुछ नहीं) के साथ शुरू होती है और यह स्वीकार्यता के लिए प्रमाणन को पूर्व शर्त बनाती है। जज ने कहा कि इसकी वजह से धारा 65बी ने कई दिक्कतें की हैं। उन्होंने कहा : “ऐसा करते समय, यह प्रासंगिकता के बारे में बात नहीं करता। एक तरह से धारा 65ए और 65बी (यदि साथ पढ़ा जाये तो) सबूत और स्वीकार्यता दोनों का घालमेल करती हैं, लेकिन ये प्रासंगिकता के बारे में बात नहीं करती हैं। धारा 65ए इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री को साबित करने के उद्देश्य से धारा 65 बी में निर्धारित प्रक्रिया को संदर्भित करती है, लेकिन धारा 65बी पूरी तरह से स्वीकार्यता की पूर्व शर्तों के बारे में बताती है। इसके परिणामस्वरूप, धारा 65बी ‘स्वीकार्यता’को प्रथम या बाहरी सुरक्षा चक्र के तौर पर रखती है, जो किसी भी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस को जांच की पूर्व निर्धारित शर्तें पूरी नहीं करने पर बाहर ही रोक देने की क्षमता रखती है।”