ग़ज़ल
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हीरालाल यादव हीरा
ग़म की फ़क़त है ज़ीस्त में बरसात क्या करें
होती नहीं ख़ुशी से मुलाक़ात क्या करें
अपने सिवा किसी को समझता जो कुछ न हो
उस आदमी से दिल की भला बात क्या करें
बेवज्ह आँखें नम तो हमारी नहीं हुईं
यादों की शाम लायी है बारात क्या करें
लायें कहाँ से ढूँढ के तू ही बता ज़वाब
टेढ़े हैं ज़ीस्त तेरे सवालात क्या करें
मेहनत में कुछ कमी न कहीं कोशिशों में है
फिर भी नसीब में है फ़क़त मात क्या करें
करना तो चाहते हैं जहां पर यकीं मगर
करता जहां है रोज़ नई घात क्या करें
हीरा नहीं हो तुम ही परेशाँ जहान में
बिगड़े हुए सभी के हैं हालात क्या करें