कविता
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रवि यादव “प्रीतम”
मैं नहीं तपस्वी सत्कर्मी
फिर भी सारे दुःख दूर हुए
पथ के मेरे पर्वत पहाड़
पल भर में चकनाचूर हुए
करूणाकर की करूणा है ये
जो मिला मुकाम समझते हैं
मैं राम को समझूं न समझूं
पर मुझको राम समझते है
पलकों को प्रवेश द्वार मेरे
दिल को निज धाम समझते हैं
निर्मल शोहरत सम्मान मिले
पूरित सारा अरमान मिले
हर रोज नई पहचान मिले
अगणित असंख्य वरदान मिले
बेजान जान को जान मिले
अमृत करने को पान मिले
मेरे उर अन्तर आन मिले
करूणानिधि कृपा निधान मिले
मेरे आराम से रहने को
अपना आराम समझते हैं
मैं समझ नही पाता आखिर
ऐसा क्या है किरदार मेरा
मैं समझ न पाता क्यों करते हैं
इतना अधिक दुलार मेरा
मेरे ही कारण वो आगे
आंखों के सृष्टि रखते हैं
मैं कोश करोड़ों दूर रहूं
पर मुझ पर दृष्टि रखते हैं
मेरी सूरत से वाकिब हैं
या मेरा नाम समझते है