वो नेता, जिसने दाव पर लगा दी थी इंदिरा गांधी की साख, जिससे उन्हें लगानी पड़ी इमरजेंसी
25 जून 1975 की आधी रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने देश में आपातकाल (Emergency) की घोषणा कर दी. ये कदम इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले के बाद उठाया गया था, जिसमें 1971 में इंदिरा गांधी को चुनाव में अनियमितताएं बरतने का दोषी पाया और उन्हें अगले छह सालों तक के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया. ये मुकदमा किया था उस नेता ने, जिसने रायबरेली में उनके खिलाफ चुनाव लड़ा था. वो नेता थे राजनारायण. जब भी इंदिरा गांधी और आपातकाल का नाम आता है तब राजनारायण का भी नाम लिया जाता है. राजनारायण को तब भारतीय राजनीति में फक्कड़ नेता कहा जाता था. कई बार दोस्त उनके दुश्मन बन जाते थे और दुश्मन हो जाते थे दोस्त. वो बाद में जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बने. कुछ लोग उन्हें भारतीय राजनीति का विदूषक भी कहते थे. लेकिन वो ऐसे खांटी नेता थे, जिनकी ईमानदारी और गरीबों के प्रति समर्पण पर कभी संदेह नहीं किया जा सकता. 69 साल की उम्र में वो 80 बार जेल गए. जेल में कुल मिलाकर उन्होंने 17 साल साल बिताए, जिसमें तीन साल आजादी से पहले और 14 साल आजादी के बाद थे. कहा जाता है कि अगर राजनारायण नहीं होते तो आपातकाल भी नहीं लगता. बेशक इंदिरा गांधी लौह महिला कही जाती हैं लेकिन अपने राजनीतिक करियर में वो किसी नेता से घबराईं या आतंकित हुईं तो वो राजनारायण ही थे.
तब कोई बड़ा नेता इंदिरा से टकराने की हिम्मत नहीं करता था
60 के दशक के खत्म होते होते इंदिरा मजबूत प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. कांग्रेस के ताकतवर नेता उनके सामने पानी मांग रहे थे. विपक्ष बहुत कमजोर स्थिति में था. ऐसे में जब इंदिरा गांधी ने वर्ष 1971 में दोबारा चुनाव जीतकर आईं तो किसी बड़े नेता में उनसे टकराने की हिम्मत नहीं थी. ऐसे में राजनारायण ना केवल उनसे भिड़े बल्कि विपक्ष को एक करने की जमीन भी बनाई. अगर वह इंदिरा को मुकदमे में टक्कर नहीं देते तो न जयप्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति का आंदोलन कर पाते. न आपातकाल लगता. ना ही 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ता.
राजनारायण ने अपनी सारी जमीनें गरीबों को दान में दे दी
राजनारायण का जन्म बनारस के उस जमींदार परिवार में हुआ,जो वहां के राजघराने से जुड़ा माना जाता था. बहुतायत में जमीन थी. लंबी चौड़ी खेती. रसूख और रूतबा. वह अलग मिट्टी के बने थे. समाजवाद में तपे और ढले हुए. वह राममनोहर लोहिया के साथ सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थे. उनके खास सहयोगी रहे क्रांति प्रकाश कहते हैं कि उन्होंने अपने हिस्से की सारी जमीन गरीबों को दे दी. उनके खुद के परिवार में बहुत विरोध हुआ. भाइयों ने बुरा माना. वह टस से मस नहींं हुए. यहां तक कि बेटों के लिए भी कोई संपत्ति नहीं छोड़ी.
राजनारायण अकेले ऐसे नेता थे, जिन्होंने इंदिरा से टकराने की हिम्मत की
रायबरेली से राजनारायण ने की थी चुनाव लड़ने की हिम्मत
बहुत पहले डॉ. युगेश्वर कल्हण की किताब छपी थी, ‘आपातकाल का धूमकेतु: राजनारायण.’ तब राजनारायण और इंदिरा गांधी दोनों जीवित थे. वो किताब कुछ सालों पहले फिर प्रकाशित हुई. किताब में कहा गया, राजनारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ाई हर जगह लड़ी. संसद में और सड़क पर भी. चुनाव के मैदान में और अदालत में भी. कोई मोर्चा छोड़ा नहीं. 1969 में जिन समाजवादियों को लगता था कि इंदिरा सही काम कर रही हैं, उनका मोहभंग हो चुका था. 1971 के चुनावों में रायबरेली से इंदिरा के खिलाफ मजबूत उम्मीदवार खड़ा किया जाना था. कोई तैयार नहीं था. न चंद्रभानु गुप्ता तैयार हुए और न चंद्रशेखर की हिम्मत हुई . न किसी अन्य दिग्गज नेता की. ऐसे में राजनारायण सिंह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार बने.
चुनाव हारने के बाद इंदिरा को कोर्ट में घसीटा
राजनारायण 1971 का चुनाव हार गए. चुनाव जीतीं इंदिरा गांधी. राजनारायण ने चुनाव जीतने के लिए इंदिरा के सारे गलत हथकंडों पर नजर रखी. उसे संवैधानिक और असंवैधानिक रूप दिया. उनके एक–एक भ्रष्टाचार को गिनते रहे. चुनाव खत्म होते ही न्यायालय पहुंचे. उन्होंने सात आरोप लगाए. मुकदमा शुरू हुआ. लंबा चला. एक समय ऐसा भी आया जब इंदिरा गांधी को खुद अदालत में हाजिर होना पड़ा. सफाई देनी पड़ी.उनसे छह घंटे तक पूछताछ हुई.
जब फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ आया तो उन्होंने आपातकाल लगाने का फैसला कर लिया
12 जून 1975 को आया बड़ा फैसला
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज ने फैसला देने से पहले इसे पूरी तरह गुप्त रखा. जज ने टाइपिस्ट को घर बुलाया. फैसला लिखवाया. उसे तभी जाने दिया, जब फैसला सुना दिया गया. उन्होंने इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. उन पर छह सालों तक चुनाव लड़ने पर रोक लग गई. पुपुल जयकर ने इंदिरा की जीवनी में लिखा, “इंदिरा को आशंका थी कि फैसला उनके खिलाफ आ सकता है. 12 जून 1975 को फैसला आया. इसके 14वें दिन इंदिरा ने देशभर आपातकाल लगा दिया.”
सबसे पहले राजनारायण हुए गिरफ्तार
आपातकाल लगने के कुछ ही घंटों के अंदर सबसे पहले राजनारायण को गिरफ्तार किया गया. उसी दिन जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और अटलबिहारी वाजपेयी की गिरफ्तारी हुई. देशभर में हजारों लोग जेलों में डाले गए. यकीनन राजनारायण वो शख्स थे, जिन्होंने इंदिरा को बुरी तरह आतंकित कर दिया था कि उन्होंने ये कदम उठाना पड़ा. लेकिन इसने विपक्ष को साथ आने का मौका दिया.
इंदिरा एक बार ही चुनाव हारीं और वो था ये नेता
वर्ष 1977 में पहली बार केंद्र में कांग्रेस के अलावा दूसरी पार्टी सत्तारुढ हुई. बेशक जनता पार्टी की सरकार अपने अंतरविरोधों की वजह से जल्दी ढह गई लेकिन देश में गैरकांग्रेसी आंदोलन को नई आक्सीजन मिली. 1977 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाकर चुनाव कराया तो रायबरेली पर उनके खिलाफ फिर राजनारायण सामने थे. इस बार उन्होंने इंदिरा को बुरी शिकस्त दी. अपने पूरे राजनीतिक करियर में इंदिरा ने सही मायनों में एक ही शख्स से शिकस्त पाई. कहना नहीं होगा कि वो राजनारायण थे.
आपातकाल में जब गिरफ्तारियां शुरू हुईं तो राजनारायण सबसे पहले जेल भेजे जाने वालों में थे
क्रांति प्रकाश बताते हैं कि जब जनता पार्टी के शासनकाल में राजनारायण स्वास्थ्य मंत्री बने तो उन्होंने तुुरंत गरीबों को इलाज और आपरेशन के लिए आर्थिक मदद शुरू कराई. दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के नाम बदल दिए गए. उनके दरवाजे हमेशा जरूरतमंदों के लिए खुले होते थे. वह दिल्ली में जब रहते थे तो कोई खाली हाथ नहीं लौटता था. किसी के पास किराया नहीं होता था तो किसी के पास भोजन-हर किसी की वह मदद करते थे. क्रांति प्रकाश कहते हैं, उनका जीवन हमेशा सादगी से भरा रहा.साधारण कपड़ा पहनते थे. जीवन में कोई लग्जरी नहीं थी. हां, बस वह खाने के शौकीन थे. उनके पास जो भी पैसा आता था, वो जरूरतमंदों में बंट जाता था. कभी अपने लिए एक पैसा नहीं जुटाया.
जब लोहिया उनसे नाराज हो गए
वह ताजिंदगी समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के करीबी रहे. उनके प्रिय पात्र. एक बार संबंधों में खटास आई. उसे राजनारायण ने खास अंदाज में दूर किया. राजनारायण 1962 में विधानसभा के चुनावों में हार गए. वर्ष 52 से पहली बार वह विधानसभा से बाहर थे. पांच साल ये स्थिति बनी रहनी थी. ऐसे में लोहिया के नहीं चाहने के बाद भी वह 62 में राज्यसभा चुनाव के लिए लड़े. जीत भी गए. लोहिया को ये अच्छा नहीं लगा. उन्होंने माना कि राजनारायण ने सिद्धांतों के खिलाफ गलत काम किया है. उनसे बातचीत बंद कर दी. घर आना बंद करा दिया. ये जगजाहिर था कि लोहिया अगर किसी से एक बार संबंध तोड़ लेते हैं तो फिर जोड़ते नहीं.
रोज जाकर लोहिया के दरवाजे पर धरना देकर बैठ जाते थे
राजनारायण ने भरसक कोशिश की लेकिन लोहिया टस से मस नहीं हुए. उन्होंने खास तरीका निकाला. वह अगले कुछ महीनों तक राज्यसभा से निकलकर उस गेट पर धरना देकर बैठ जाते थे, जिससे लोहिया जी निकलते थे. जब वह लगातार ये करते रहे तो लोहिया जी को झुकना पड़ा. संबंध फिर बहाल हो गए. लोहिया पर रामकमल राय ने अपनी किताब राम मनोहर लोहियाः आचरण की भाषा में कहा है कि लोहिया जी अक्सर कहते थे जब तक राजनारायण जिंदा हैं, देश में लोकतंत्र मर नहीं सकता.
जब विदा हुए तब …
जनता पार्टी टूटने पर वह पहले चरण सिंह के मददगार बने. बाद में उन्हीं के खिलाफ ताल ठोंककर चुनावों में कूद पड़े. बाद में उन्हीं के सियासी साथी उनसे परहेज करने लगे. उन्हीं साथियों ने उन्हें भारतीय राजनीति का विदूषक भी करार दिया. लेकिन ये बात सही है कि लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए उन्होंने कभी कोई समझौता किया ही नहीं. राजनारायण फकीर की भांति दुनिया से विदा हुए. 31 दिसंबर 1986 को उनका निधन हो गया. न मकान, न जमीन, न बैंक–बैलेंस. अपने बाद के जीवन में वो इंदिरा गांधी की तारीफ भी करने लगे थे.