Saturday, November 23, 2024
प्रतापगढ़

मोबाइल के शिकंजे मे बचपन- प्रेमाराय भूतपूर्व सहायक शिक्षा निदेशक

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किसी भी देश की सबसे बड़ी संपत्ति उसके बच्चे होते हैं, क्योंकि वही देश के भावी नागरिक होते हैं । आज शैशवावस्था से बाल्यावस्था और किशोरावस्था को पार करता हुआ युवा हर देश का वो सपना है, जिसके कंधों पर समाज अपने देश की समस्त प्रगति और विकास का दायित्व सौंपकर मंगल ग्रह पहुँचने का सपना देख रहा है , परन्तु इस डिजिटल युग में आज सबसे अधिक संकट बच्चों पर ही गहराया है। ध्यान देने की बात यह है कि कोरोना महामारी आने से पूर्व ही बच्चों के हाथ में मोबाइल आ गया था ,जिसकी नवीनता ने न केवल बच्चों बल्कि उनके माता पिता को भी अत्यंत आकर्षित किया परिणामतः इसके दुष्प्रभाव को सोचे बिना इसका भरपूर प्रयोग घर में होने लगा।मातायें अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा खाना व नाश्ता खिलाने के लिए उन्हें या तो टी.वी. के सामने बैठा देतीं या मोबाइल हाथ में थमा देतीं कि बच्चे का पूरा ध्यान टी.वी. या मोबाइल पर अटका रहे और इस मध्य उसे जल्दी से जल्दी वो खाना खिला दिया जाये, जिसे सामान्यतया वो खाना नहीं चाहता है ।टी.वी. और मोबाइल दोनों ही बच्चों की आंखों के लिए बहुत हानिकारक हैं। इस पर ध्यान नहीं दिया गया । धीरे -धीरे जैसे- जैसे स्मार्ट मोबाइल की संख्या बढ़ती गयी और उसका मूल्य घटता गया वैसे- वैसे बच्चे मोबाइल के आदी होते गये ।उन्हें टी.वी सीरियल के बजाय मोबाइल में उछलते कूदते जानवर ,डाकुओं की फाइट,सड़कों पर भागती गाड़ियांँ ,पहाड़ से नदियों में कूदते तैराक आदि दृश्य बहुत आकर्षक लगने लगे ।पति का देर से घर लौटना और घर में काम की अधिकता और नौकरों के अभाव में मातायें को अपने मनोरंजन और घरेलू कार्यों को निपटाने के लिए बच्चे की मोबाइल में अतिसंलिप्तता असामान्य नहीं लगी, लेकिन इस लापरवाही ने बच्चों में लगातार मोबाइल देखने का ऐसा हठ पैदा कर दिया कि बच्चे मोबाइल के आगे अपने माता- पिता के आदेशों की उपेक्षा करने लगे । धीरे- धीरे बच्चों में मोबाइल देखने की उत्कट इच्छा का प्रभाव उनकी आयु बढ़ने के साथ उनके संपूर्ण व्यक्तित्व पर पड़ने लगा है।उन्हें अधिक से अधिक अकेलापन अच्छा लगता है। शैशवावस्था को पार करते करते वह सामाजिक सहभागिता और पारिवारिक लोगों तक से दूर होने लगे । स्कूल जाने वाले बच्चे अपने टीचर और मित्र- गण से मिलकर कुछ सहज अवश्य हो जाते थे वरन् उन्हें वहाँ खेलकूद और शारीरिक व्यायाम के अवसर भी मिल जाते थे, किन्तु घर आते ही मोबाइल फिर उनके हाथों में आ जाता था और वे पार्क या मैदानी खेलों में अपनी स्कूली थकावट को बुझाने की अपेक्षा मोबाइल के तरह- तरह के दृश्यों में उलझे रहना अधिक आह्लादकारी लगने लगा और उन्हें अकेलापन इतना भाने लगा है कि वे परिवार से दूर होते जा रहे हैं। बड़़ों के साथ उठना बैठना ,बाहरी लोगों का आतिथ्य और उनसे मिलना जुलना,घर के छोटे मोटे काम में सहयोग देना, माता पिता का हाथ बटाना, आदि जैसे उनके जीवन का आवश्यक अंग ही नहीं रह गया है। वस्तुतः परिवार ही वह पाठशाला है जहां बच्चों में संस्कार के बीज बोये जाते हैं। मानवीय मूल्यों की महत्ता, परम्परा ,आस्था व चारित्रिक उन्नयन के मंत्र पढ़ाये जाते हैं, पर वो बच्चे जिनकी आंखों में मोबाइल बस जाता है, उन्हें दूसरा कोई अक्स नजर नहीं आता।वो माता पिता की कोई सीख ,उपदेश या गुण सीखना ही नहीं चाहते ।वास्तविकता तो ये है कि संस्कार पढ़ाने से नहीं आचरण से सिखाये जाने की विद्या है, लेकिन जब सोते जागते ,उठते बैठते हर समय बच्चों के हाथ में मोबाइल रहेगा तो उन्हें कब और कैसे कुछ सिखाया जा सकता है ।
दुर्भाग्य से कोरोना महामारी की निरंतर बहती हुई एक के बाद एक लहर ने संसार में बच्चों का बहुत ही अहित किया और उन्हें मोबाइल की लहर में डूबने का दुर्भाग्यपूर्ण अवसर प्रदान किया है। भारत इससे अछूता नहीं है। कोरोना ने बच्चों के घर से बाहर आने जाने, खुले मैदानों में खेलने टहलने साइकिलिंग आदि करने,क्रिकेट, हाकी ,कबड्डी जैसे परिश्रमकारी खेलों से उन्हें इतना दूर कर दिया है कि उनकी शारीरिक संतुलन बिगड़ने लगा है और वे रोगी हो रहे हैं। आन लाइन पढा़ई ने बच्चों को सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक लैपटॉप व मोबाइल पर पढ़ने का जो दण्ड दिया है, उससे उन्हें उतना मिल नहीं रहा है, जितना वो खो रहे हैं। यद्यपि आनलाइन पढा़ई एक विवशता ही है क्योंकि कोई भी अभिभावक ऐसी स्थिति में न तो अपने बच्चों को स्कूल भेजना चाहता है न ही सरकार स्कूल खोलना चाहती है तो 7-8 घंटे आनलाइन पढ़ाई करने के बाद बच्चे अपनी थकान मिटाने के लिए पुनः उसी मोबाइल और लैपटॉप की शरण में चले जाते हैं, जहां से अभी- अभी मुक्त हुये हैं। छोटी- छोटी आंखों पर बढ़ते हुये चश्में बच्चों के भावी अन्धेपन का संकेत तो स्पष्ट रूप मे दे रहे हैं, पर उधर कम ही लोगों का ध्यान जाता है। शायद भविष्य में कोई कृत्रिम कार्निया बन जाने की आशा में मन भटक रहा हो। बढ़ते हुये कोरोना की लहर ने बढ़ती आयु के बच्चों को मोबाइल के भयानक अपराधों की ओर ढकेल दिया है । अपहरण ,चोरी ,जुआ खेलना, अश्लील- प्रसंग देखना जैसे अपराधों की ओर उन्हें मोड़ दिया है ।बच्चे आनलाइन से पिता के एकाउंट में से लाखों रुपये निकाल कर जुआ खेलने जैसे अपराधों के जाल में फंसते जा रहे हैं, जहांँ से उनका निकलना असंभव नहीं पर अत्यंत कठिन अवश्य हो गया है । सोचने की बात यह है कि देश की भावी पीढ़ी को मोबाइल के मकड़जाल से कैसे बाहर निकाला जाये ! कैसे उनका मोबाइल के प्रति मोहभंग किया जाय। विचारणीय बात यह है कि हम बच्चों को मोबाइल के मोह से कैसे मुक्त करें क्योंकि इन्हें किशोर और युवा होने से पहले हमने यदि इन्हें नहीं सम्भाला तो भारत जो संसार में सबसे युवा देश कहा जाता है और जिसके बल पर हम विकास और जगतगुरु होने के सपने देख रहे हैं, वो विकास मोबाइल पर एक सेल्फी बनकर ही निष्प्राण हो जायेगा । किशोरावस्था से पूर्व तक की आयु के बच्चे पूर्णतः माता पिता के नियंत्रण में रहते हैं, इसलिए माता- पिता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है । विद्यालय कब खुलेगें कब बंद रहेंगे, कोरोना की फिर कोई लहर आयेगी या नहीं इसकी प्रतीक्षा न करके उन्हें अपने बच्चों की शैशवावस्था से और उसके बाद विद्यालय से जुड़ने और उसकी समयसारिणी का अनुपालन करने के साथ ही अपने घर में ही बच्चों की देखभाल ,खेलकूद, और पढाने की उचित व्यवस्था करनी होगी । विद्यालय जाने वाले बच्चे शिक्षक की बातों को माता- पिता से अधिक महत्व देते हैं, ऐसे में घर में ही शिक्षक की भूमिका अदा करने के लिये उन्हें ‘हितोपदेश,पंचतंत्र, अमर-चित्रकथा जैसी कहानियों के माध्यम से वांँछनीय संस्कार चरित्र में उत्पन्न करने की शिक्षा देनी होगी। साम-दाम और दंड की शैली अपनानी होगी और बाल- मनोविज्ञान का ज्ञानार्जन करना पड़ेगा।मोबाइल से अधिक से अधिक दूर रखने के लिए आकर्षक सामग्री जैसे- क्राफ्ट ,पेंटिंग,संगीत तथा घरेलू खेल जैसे- कैरम,लूडो -सांँप सीढी़ आदि को पुनर्जीवित करना होगा । मोबाइल से दूर रहने पर बच्चों में उपयोगी संस्कार ,ज्ञान-कौशल,विचार आदि का विकास करना होगा ।आज्ञाकारिता,अनुशासन, सहभागिता और सामाजिकता का स्वतः विकास होगा, जो उनके भावी जीवन के विकास की ठोस नींव सिद्ध होगा ।अन्ततः आपने यदि अपने स्तर से बच्चों को मोबाइल से दूर रखने का प्रयास नहीं किया तो निश्चित रूप से समझ लीजिए कि वह मोबाइल के ऐसे नशे का शिकार हो जायेगा कि दुनिया की कोई दवा उसे निरोग नहीं कर सकेगी । ये बच्चे युवा होकर
जब अपने माता- पिता को नहीं सम्भाल सकेंगें तो देश को सम्भालने की इनसे आशा करना एक मृगतृष्णा जैसी ही सिद्ध होगी ।