Sunday, October 6, 2024
गजल

दुख ज़िन्दगी के ख़ुद ही बढ़ाने में हैं लगे

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हीरालाल यादव हीरा

मुमकिन नहीं जो उसको ही पाने में हैं लगे
दुख ज़िन्दगी के ख़ुद ही बढ़ाने में हैं लगे

इंसानियत की साख गिराने में हैं लगे
दुनिया में पाप लोग कमाने में हैं लगे

हँस हँस के सारे नाज़ उठाने में हैं लगे
एहसान ज़िन्दगी का चुकाने में हैं लगे

इंसान भी कहाने के क़ाबिल नहीं है जो
सब देवता उसे ही बनाने में हैं लगे

दामन को अपने पाक दिखाने को सब यहाँ
इलज़ाम दूसरों पे लगाने में हैं लगे

इक रोज़ ये डसेंगे ये सच जान कर भी क्यों
साँपों को लोग दूध पिलाने में हैं लगे

नादाँ हैं रख के चाँद सितारों की आरज़ू
चैन ओ सुकून लोग गँवाने में हैं लगे

डूबे हुए हैं जिसके ख़यालों में रात-दिन
कैसे कहें कि उसको भुलाने में हैं लगे

किरदार पर है उनकी भी कालिख पुती हुई
दाग़ी जो दूसरों को बताने में हैं लगे