धारा 156 (3) सीआरपीसी: क्या मजिस्ट्रेट दे सकता है CBI अन्वेषण (Investigation) का आदेश?
सुप्रीम कोर्ट ने 19-मई-2020 (मंगलवार) को रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी द्वारा दाखिल याचिका, जिसमे उन्होंने अपने केस को महाराष्ट्र पुलिस से सीबीआई को हस्तांतरित करने की मांग की थी, उसे खारिज कर दिया। दरअसल, गोस्वामी ने मुंबई पुलिस की निष्पक्षता पर संदेह जताते हुए सीबीआई को अपने मामले का अन्वेषण स्थानांतरित करने की मांग इस याचिका में की थी। जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस एम. आर. शाह की पीठ ने यह कहा कि इस तरह का ट्रांसफर, “असाधारण रूप से” और “असाधारण परिस्थितियों में” इस्तेमाल की जाने वाली एक “असाधारण शक्ति” है। पीठ ने कहा कि सीबीआई को मामले का अन्वेषण स्थानांतरित करना कोई नियमित बात नहीं है। उल्लेखनीय है कि भारत में सीबीआई एक विशेष अन्वेषण एजेंसी के रूप में स्थापित की गयी है, और सीबीआई, DSPE (दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना) अधिनियम, 1946 से किसी अपराध का अन्वेषण करने के लिए अपनी कानूनी शक्तियां प्राप्त करती है। एक पिछले लेख में, हम सीबीआई के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त कर चुके हैं। उस लेख में हमने यह जाना था कि आखिर CBI किसी मामले का अन्वेषण कब करती है? और क्या हैं वह परिस्थितियां अब सीबीआई अन्वेषण के आदेश दिए जा सकते हैं। जैसा कि हम जानते ही हैं कि अर्नब गोस्वामी ने अपने मामले के अन्वेषण को सीबीआई को हस्तांतरित करने की मांग उच्चतम न्यायालय से की थी, लेकिन क्या वह ऐसी मांग उच्च न्यायालय या एक सम्बंधित मजिस्ट्रेट से कर सकते थे? इस लेख में हम सीमित अर्थों में यह समझेंगे कि क्या एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) सीआरपीसी के अंतर्गत, सीबीआई अन्वेषण का आदेश दे सकता है? उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा अन्वेषण का आदेश उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल राज्य बनाम कमिटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स, (2010) 3 एससीसी 571 के मामले में अदलत ने यह अभिनिर्णित किया था कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के पास सीबीआई द्वारा अपराध की जांच के आदेश देने का अधिकार है, और इस उद्देश्य के लिए दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6 के तहत राज्य सरकार की सहमति की भी आवश्यकता नहीं है। इस मामले में विशेष रूप से उच्चतम न्यायालय ने यह देखा था कि चूँकि उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय, नागरिक स्वतंत्रता के रक्षक होते हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट और तमाम हाईकोर्ट के पास सीबीआई को किसी मामले का अन्वेषण सौंपने की न केवल शक्ति और अधिकार क्षेत्र है, बल्कि मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का ऐसा करना उनका दायित्व भी है। हालाँकि, अर्नब गोस्वामी बनाम भारत संघ [Writ Petition (Crl) No. 130 of 2020 with Writ Petition (Crl.) Diary No. 11189 of 2020] के फैसले की रौशनी में अब यह कहा जा सकता है कि, सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट अवश्य ही सीबीआई को किसी मामले का अन्वेषण सौंप सकते हैं, हालाँकि, सीबीआई को किसी मामले का अन्वेषण [रेगुलर अन्वेषण एजेंसी (राज्य की पुलिस) से] केवल इसलिए हस्तांतरित नहीं किया जा सकता कि एक पक्षकार ने स्थानीय पुलिस के खिलाफ कुछ आरोप लगाए हैं। इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय ने अर्नब गोस्वामी के मामले में यह भी साफ़ कर ही दिया है कि अन्वेषण के तरीके से आरोपी की नाराजगी, मामले के अन्वेषण को CBI को ट्रांसफर करने का आधार नहीं बन सकती है। ध्यान रखा जाना चाहिए कि एक अन्वेषण एजेंसी के पास अन्वेषण के सम्बन्ध में निर्देश देने का विवेक निहित है, जो सवाल और पूछताछ के तरीके की प्रकृति का निर्धारण करता है। यह स्थिति पी. चिदंबरम बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2019) 9 SCC 24 के मामले में भी साफ़ की गयी थी। क्या मजिस्ट्रेट दे सकता है CBI अन्वेषण (Investigation) का आदेश? सीआरपीसी की धारा 156 (3) के अनुसार, कोई भी सशक्त मजिस्ट्रेट, धारा 190 सीआरपीसी के अंतर्गत, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को किसी भी संज्ञेय अपराध का अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है। दूसरे शब्दों में, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3), किसी भी संज्ञेय मामले की जांच करने के लिए एक मजिस्ट्रेट को पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को निर्देशित करने का अधिकार देती है, जिस पर ऐसे मजिस्ट्रेट का अधिकार क्षेत्र है। हाँ, यह अवश्य है कि जब एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश देता है, तो वह केवल ऐसा अन्वेषण करने के लिए एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को ही निर्देशित कर सकता है, न कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को। हालांकि, यहाँ यह बात साफ़ तौर पर समझ ली जानी चाहिए कि ऐसा वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, सीआरपीसी की धारा 36 के आधार पर अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है और स्वयं भी ऐसे किसी मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिस मामले का अन्वेषण करने को उस अधिकारी के अधीनस्थ कार्यरत किसी अधिकारी को निर्देशित किया गया है। गौरतलब है कि, केरल राज्य बनाम कोलाक्कन मूसा हाजी 1944 Cri LJ 1288 (Ker) के मामले में केरल हाईकोर्ट ने और कुलदीप सिंह बनाम राज्य 1994 Cri LJ 2502 (Del) के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने यह साफ़ किया था कि, एक मजिस्ट्रेट, सीआरपीसी की धारा 156(3) के अंतर्गत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को अन्वेषण का निर्देश देने के अलावा किसी अन्य एजेंसी को अन्वेषण का आदेश देने की अथॉरिटी नहीं रखता है। उल्लेखनीय है कि इंदुमती एम. शाह बनाम नरेन्द्र मुल्जीभाई असरा 1995 Cri LJ 918 के मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने यह बात दोहराई थी कि धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत अधीनस्थ अदालत, धारा 156 के तहत संदर्भित को छोड़कर, किसी अन्य प्राधिकरण को किसी मामले का अन्वेषण नहीं सौंप सकती। दरअसल इस मामले में मजिस्ट्रेट ने धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत, सीबीआई को एक मामले का अन्वेषण करने का निर्देश दिया था। इसी निर्देश को इस मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने अवैध और अनुचित माना था। कर्नाटक हाईकोर्ट ने कर्नाटक राज्य बनाम थम्मैयाह 1999 Cri LJ 53 के मामले में भी यह साफ़ किया था कि एक मजिस्ट्रेट के पास सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत, केवल ऐसे पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी को, जो उसके अधिकार क्षेत्र में आता है, यह निर्देश देने की शक्ति है कि वह किसी मामले का अन्वेषण करे। इसी मामले में अदालत ने यह देखा था कि एक मजिस्ट्रेट के पास, अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर के किसी भी पुलिस अधिकारी को, जिसमें सीओडी या सीबीआई शामिल है, निर्देश देने की न तो अनुमति है और न ही अधिकार क्षेत्र। इसके अलावा, सीबीआई बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2001) 3 SCC 333 के निर्णय में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि एक मजिस्ट्रेट, सीआरपीसी की धारा 156(3) के अंतर्गत अपनी शक्तियों के उपयोग में, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को अन्वेषण का निर्देश देने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता है, और ऐसा कोई भी आदेश, एक मजिस्ट्रेट द्वारा सीबीआई को नहीं दिया जा सकता है। इन सभी मामलों की रौशनी में यह जाहिर हो जाता है कि सीबीआई द्वारा अन्वेषण किये जाने का आदेश देने का अधिकार, एक मजिस्ट्रेट के पास नहीं होता है, और इसीलिए कभी भी ऐसा आवेदन एक मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर नहीं किया जाता है, क्योंकि सीबीआई को अन्वेषण के लिए निर्देशित करने का अधिकार एक मजिस्ट्रेट के पास नहीं होता है। इसी क्रम में, सीबीआई बनाम गुजरात राज्य, (2007) 6 SCC 156 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त सिद्धांत को दोहराया है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रियल पावर को बढ़ाया नहीं जा सकता। एक थाने के प्रभारी अधिकारी को जांच का निर्देश देने से परे और ऐसा कोई निर्देश सीबीआई को नहीं दिया जा सकता है। दरअसल, सीबीआई बनाम गुजरात राज्य मामले में एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने सीबीआई को एक मामले का अन्वेषण करने का आदेश दे दिया था, जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने अनुचित ठहराया था। अंत में, जैसा कि तमाम मामलों से साफ़ है, एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) सीआरपीसी के अंतर्गत अपनी शक्तियों के प्रयोग में किसी मामले के अन्वेषण को सीबीआई को नहीं सौंप सकता है। वह केवल एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी (अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर) को अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है।