लावारिस बचपन
रवि यादव “प्रीतम”
शिक्षा से वंचित हूं जीवन को भिक्षा से सींच रहा हूं
भूखे प्यासे नंगे भिखमंगे इन सबके बीच रहा हूं
गर्मी भर झुलसे ठण्डी में कांपे नग्न बदन है
मैं यतीम हूं नाम मेरा एक लावारिस बचपन है
कभी मदारी के रस्सी पर निर्भय होकर चलने वाला
कभी किसी बाजार में भजियां ब्रेड पकौड़े तलने वाला
लिए कटोरा हाथों में अक्सर हर जगह टहलने वाला
कभी किसी होटल के मालिक के टुकड़ों पर पलने वाला
इच्छा जिसकी गुड़ी जलेबी खाने की होती रहती है
सालों-साल अधुरी इच्छा होती और रोती रहती है
देख के कोई खेल खिलौने पाने की हठ कर लेता है
मगर न हासिल कर पाने पर मन से हठ को तज देता है
मात-पिता को लाड़ लड़ाते बाल पे दृष्टि पड़ जाती है
फिर दिल व्यग्र बिलख उठता है बन्जर नजरें भर आती हैं
कभी कहीं अखबार बांटते कभी कहीं पर जूता सिलते
आप सभी आदरणीय से हर दिन रहता हूं मिलते-जुलते
आप बोलते हैं तेवर में मैं हूं बोलता हंसते खिलते
राम राम कर लेता हूं मैं आप सभी से चलते चलते
मुझसेे बेहतर लाश है उसके ऊपर नया कफ़न है
मैं यतीम हूं नाम मेरा एक लावारिस बचपन है
नाजायज़ रिश्ता जिनका भी फलीभूत होता है
नूर निगाहों का उनके मन का ज़मीर खोता है
मुझ बेबस को निर्दयता से छोड़ चले जाते हैं
नर्म जिस्म को झूण्ड में आकर के कुत्ते खाते हैं
इसके पहले देख लिया जो मुझको कोई फरिश्ता
जोड लिया करता है मुझसे आजीवन का रिश्ता
मगर ये अद्भुत किस्सा मेरे साथ में कम होता है
रही सही किस्मत तो पालक अतीमाश्रम होता है
पीट दिया जाता हूं वजह निज स्वभाव रोने से
कभी काल कवलित होता हूं लाईलाज होने से
न घर- द्वार मेरा है कोई खानाबदोश मैं हूं
धरासुन्दरी पर इकलौता गरल कोष भी मैं हूं
सहमी सहमी सांसे मेरी दबी दबी धड़कन है
मैं यतीम हूं नाम मेरा एक लावारिस बचपन है