ग़ज़ल
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हीरालाल यादव हीरा
ज़ुल्म अरमानों पे अब और न ढाया जाए
जश्न जीने का चलो खुल के मनाया जाए
देते फिरते हैं जहां भर को नसीहत जिसकी
वो सबक ख़ुद को भी इक रोज पढ़ाया जाए
हमपे उँगली न उठा पाएँ ज़माने वाले
अपने किरदार को यूँ पाक बनाया जाए
अपनी कमियों को छुपाने के लिए दुनिया में
क्यों किसी और पे इल्ज़ाम लगाया जाए
कर लगा कर यूँ ज़रूरत की सभी चीजों पर
हम ग़रीबों को न अब और सताया जाए
झूठ, बस झूठ परोसें हैं जहां भर को जो
सामना उनका भी अब सच से कराया जाए
कोशिशें कीजिए उतने में बसर करने की
जितना ईमान से दुनिया में कमाया जाए
चाँद-तारों के हँसी ख़्वाब सज़ा कर हीरा
दायरा ख़ुद ही ग़मों का न बढ़ाया जाए