रिपोर्टर: विशेष संवाददाता
श्रावण मास का आगमन हिन्दू सनातन परंपरा में एक अत्यंत पवित्र और तपस्यामय काल के रूप में अभिहित होता है। इस काल में सम्पूर्ण उत्तर भारत के विभिन्न भागों से लाखों शिवभक्त पवित्र गंगाजल को कांवड़ के माध्यम से अपने क्षेत्रीय शिवालयों तक ले जाकर जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा युगों से भक्ति, त्याग, संयम और आत्मनियंत्रण की प्रतिमूर्ति रही है। किंतु विगत वर्षों में इस आस्था यात्रा के स्वरूप में जिस प्रकार का विचलन परिलक्षित हो रहा है, वह केवल चिंताजनक ही नहीं अपितु विधिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से गम्भीर विमर्श की माँग करता है।
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
14 जुलाई को हरिद्वार जनपद में दिल्ली-हरिद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग पर रोहालकी फ्लाईओवर के समीप कुछ कांवड़ यात्रियों द्वारा मामूली विवाद के पश्चात सार्वजनिक सम्पत्ति को क्षति पहुँचाई गई, यातायात बाधित किया गया एवं बैरिकेड्स को ध्वस्त कर दिया गया। पुलिस की त्वरित कार्रवाई में चार कांवड़ियों को विधिसम्मत रूप से गिरफ्तार किया गया।
इसी दिन, एक अन्य घटना में हरिद्वार नगर क्षेत्र में कुछ कांवड़ियों द्वारा दुकानों में तोड़फोड़ की गई, जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से प्रसारित हुआ। उक्त वीडियो में लाठियों से दुकान में रखे गिलासों को तोड़ते हुए उपद्रवियों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस संदर्भ में दो अतिरिक्त व्यक्तियों की गिरफ्तारी की पुष्टि जनपद पुलिस द्वारा की गई है।
विचारणीय प्रश्न
यह सत्य है कि कांवड़ यात्रा में सम्मिलित अधिकांश भक्तगण शुद्ध श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर आत्मिक कल्याण की भावना से यह कठिन यात्रा पूर्ण करते हैं। परंतु अल्पसंख्यक शरारती एवं असामाजिक तत्वों द्वारा इस यात्रा को अनुशासनहीनता, हिंसा और सांप्रदायिक विद्वेष के मंच में परिवर्तित कर दिया गया है। धार्मिक उत्सवों का यह विद्रूप रूपान्तरण न केवल भारत के बहुलतावादी समाज के मूल्यों को आहत करता है, बल्कि विधिक शासन व्यवस्था को भी चुनौती देता है।
विधिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147 (दंगा करना), धारा 427 (संपत्ति को हानि पहुंचाना), धारा 341 (अवैध रूप से मार्ग रोकना) एवं धारा 153A (धर्म के आधार पर वैमनस्य फैलाना) के अंतर्गत इन घटनाओं की गंभीरता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। इसके अतिरिक्त, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के तहत उपद्रव की आशंका होने पर पुलिस को निरोधात्मक कार्रवाई का वैधानिक अधिकार प्राप्त है, जिसका प्रयोग इन मामलों में आंशिक रूप से किया गया है।
प्रशासनिक विफलता और धार्मिक राजनीति का गठजोड़
उत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश की राज्य पुलिसों की कथित निष्क्रियता इस विघटनकारी प्रवृत्ति को परोक्ष रूप से प्रश्रय देती प्रतीत होती है। सड़कों पर खुलेआम तलवारें लहराते कांवड़ियों, धार्मिक पहचान के नाम पर ढाबों व दुकानों को निशाना बनाए जाने की घटनाएँ, और पुलिस की मौन स्वीकृति – यह सब दर्शाता है कि व्यवस्था में ‘चयनात्मक कार्रवाई’ की प्रवृत्ति जन्म ले रही है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से ऐसे सरकारी आदेशों पर आपत्ति जताई है जिनमें किसी विशेष समुदाय या धार्मिक समूह की पहचान उजागर करने हेतु सार्वजनिक रूप से नाम/क्यूआर कोड प्रदर्शित करने की अनिवार्यता हो। इसके बावजूद, 2025 की कांवड़ यात्रा के दौरान कथित तौर पर एक सामाजिक कार्यकर्ता को सार्वजनिक रूप से अपने वस्त्र उतारने हेतु विवश किया गया ताकि उसके धर्म की पुष्टि की जा सके – यह घटना धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) और व्यक्ति की गरिमा के मूल संवैधानिक सिद्धांतों का घोर उल्लंघन है।
नैतिक एवं सामाजिक पुनर्विचार का आह्वान
कांवड़ यात्रा न तो शक्ति प्रदर्शन का माध्यम है, न ही धार्मिक वर्चस्व का हथियार। यह मूलतः आस्था, संयम और सेवा की परंपरा है, जिसका उद्देश शिव तत्व में एकात्म होना है, न कि समाज में विद्वेष या भय का संचार करना।
आज जब यह यात्रा तमाशे, शक्ति प्रदर्शन और सामूहिक अराजकता का प्रतीक बनती जा रही है, तब आवश्यक है कि शासन-प्रशासन, धार्मिक नेता, और समाज सभी आत्ममंथन करें — क्या हम अपनी आस्था की परंपरा को उसके शुद्ध स्वरूप में संजो कर रख पाए हैं?
आस्था, जब विवेक और विधि से रहित हो जाए, तब वह जन व्यवस्था के लिए संकट का कारण बनती है। कांवड़ यात्रा के वर्तमान स्वरूप की पुनर्समीक्षा न केवल धर्म की मर्यादा के लिए आवश्यक है, बल्कि भारत की विधिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा हेतु भी अपरिहार्य है। यह समय है जब भक्ति को अराजकता से, और आस्था को उन्माद से पृथक किया जाए।
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