जौनपुर, 19 जुलाई 2025 (विशेष संवाददाता)
जनपद में श्रावण मास के अवसर पर आयोजित पवित्र कांवड़ यात्रा के दौरान जिलाधिकारी डॉ0 दिनेश चंद्र द्वारा सद्भावना पुल पर पहुंचकर कांवड़ यात्रियों विशेषकर बाल कांवड़ियों के मध्य फल वितरण व उत्साहवर्धन का दृश्य जहाँ एक ओर धार्मिक सौहार्द एवं प्रशासनिक सहभागिता का प्रतीक माना जा रहा है, वहीं यह संपूर्ण आयोजन गंभीर विधिक एवं बाल अधिकारीय विमर्श की दृष्टि से अनेक प्रश्नचिह्न खड़े करता है।
बाल श्रमिक निषेध कानून और किशोर न्याय अधिनियम की संभावित अवहेलना
बाल कांवड़ियों की सक्रिय भागीदारी और प्रशासनिक उपस्थिति में उनकी यात्रा में सम्मिलितता स्पष्टतः “बाल श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986” एवं संशोधित “किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015” के प्रावधानों का संभावित उल्लंघन है। सार्वजनिक स्थलों पर कम उम्र के बालकों द्वारा भारी कांवड़ लेकर यात्रा करना, और उस पर जिलाधिकारी द्वारा व्यक्तिगत रूप से प्रोत्साहन देना, बाल संरक्षण नीति के प्रतिकूल आचरण के रूप में देखा जा सकता है।
वर्तमान विधिक ढांचे के अंतर्गत किसी भी शारीरिक जोखिम अथवा मानसिक दबाव युक्त धार्मिक क्रिया में बाल सहभागिता को यदि राज्य अथवा उसके अधिकारी द्वारा प्रोत्साहन मिलता है, तो यह राज्य की परिवार एवं बाल कल्याण की संवैधानिक प्रतिबद्धता पर सीधा आघात है।
डीजे पर असंगत अपील—अनुमन्यता की अस्पष्टता
जिलाधिकारी द्वारा “अनुमन्य डेसिबल” सीमा में डीजे बजाने की अपील एक ऐसी प्रशासनिक अस्पष्टता को जन्म देती है जिसकी न्यायिक व्याख्या माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा पहले ही की जा चुकी है। Noise Pollution (Regulation and Control) Rules, 2000 के अंतर्गत धार्मिक या सांस्कृतिक आयोजनों में लाउडस्पीकर/डीजे का प्रयोग स्पष्ट अनुमति और मानक सीमा के भीतर ही किया जा सकता है।
जिलाधिकारी द्वारा केवल अपील तक सीमित रहना, परंतु विधिक दायित्वबोध से रहित सक्रिय कार्यवाही का न होना, यह सिद्ध करता है कि राज्य प्रशासन शोर प्रदूषण नियंत्रण अधिनियमों के अनुपालन में असफल है। विशेष रूप से यह तब और भी अधिक चिंतनीय हो जाता है जब डीजे के प्रयोग से न केवल ध्वनि प्रदूषण बल्कि आपराधिक घटनाओं और सांप्रदायिक तनाव की आशंकाएं उत्पन्न होती हैं।
धार्मिक उत्सव बनाम विधिक प्रतिबद्धता: प्रशासन की प्राथमिकता पर प्रश्न
श्रद्धा और सार्वजनिक आस्था के आयोजनों में प्रशासन की सहभागिता अपेक्षित है, परंतु जब यह सहभागिता विधि, नीति और संविधान के मूलभूत सिद्धांतों की अनदेखी के रूप में परिणत हो जाए, तब यह एक गंभीर पत्रकारिक विवेचन का विषय बन जाता है।
बाल कांवड़ियों की सम्मिलितता, डीजे ध्वनि सीमा पर अस्पष्टता और केवल रस्मी सुरक्षा तैयारियों के आश्वासन इस बात को स्पष्ट करते हैं कि जनपद में धार्मिक आयोजनों की आड़ में विधिक और नैतिक उत्तरदायित्वों का क्षरण हो रहा है। जिलाधिकारी द्वारा की गई फल वितरण की यह कवायद, बाल श्रद्धालुओं के उत्साहवर्धन का यह क्षण, और डीजे के संदर्भ में केवल “अपील मात्र“— यह सब प्रशासनिक शिष्टाचार भले हो, पर विधिक दायित्व के परिप्रेक्ष्य में एक स्पष्ट असफलता है।
उच्च स्तर से स्वतः संज्ञान की आवश्यकता—यह समाचार केवल एक घटना नहीं, बल्कि शासन और विधि के बीच के संतुलन की टूटन का संकेत है। आवश्यकता इस बात की है कि बाल अधिकार आयोग, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं उच्चतम न्यायालय की समयबद्ध गाइडलाइंस का तत्काल अनुपालन सुनिश्चित हो। अन्यथा, आस्था की यह यात्रा राज्य की विधिक प्रतिबद्धताओं की बलि चढ़ती रहेगी।
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