जनपद जौनपुर की ग्राम सभाओं में हो रहा है योजनागत धन का खुला दुरुपयोग, प्रशासनिक तंत्र मौन दर्शक
जौनपुर, विशेष संवाददाता।
जनपद जौनपुर में मनरेगा योजना (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) की मूल भावना एवं संवैधानिक उद्देश्य को जिस प्रकार पदाधिकारियों, जनप्रतिनिधियों एवं कर्मचारियों की साठगांठ से रौंदा जा रहा है, वह न केवल लोकतांत्रिक प्रणाली का घोर अपमान है, अपितु भारत सरकार की ग्रामीण सशक्तिकरण नीतियों की जड़ें खोखली करने का एक संगठित प्रयास भी है।
योजनाओं के नाम पर योजनाबद्ध लूट
वर्तमान में जनपद के प्रायः समस्त विकास खंडों की ग्राम सभाओं में यह तथ्य सामने आया है कि मनरेगा योजना के अंतर्गत प्रदत्त कार्यों में स्थानीय पात्र जॉबकार्ड धारकों के स्थान पर अन्य ग्राम सभाओं से दिहाड़ी मजदूरों को लाकर कार्य कराया जा रहा है। यह प्रवृत्ति स्पष्टतः योजना के उद्देश्य की हत्या है, जो स्थानीय बेरोजगारों को वर्ष में न्यूनतम 100 दिन का रोजगार सुनिश्चित करने हेतु बनाई गई थी।
विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, इन बाहरी मजदूरों को यह जानकारी होती है कि भुगतान सरकारी खजाने से होगा, इसलिए वे बिना किसी विरोध के न्यूनतम दर पर कार्य करने को विवश होते हैं। परिणामतः स्थानीय पात्र लाभार्थियों को उनके अधिकार से वंचित किया जाता है।
फर्जी हाजिरी और भुगतान का सुनियोजित तंत्र
सबसे गंभीर अनियमितता यह है कि ग्राम प्रधान द्वारा अपने प्रभाव क्षेत्र में रहने वाले कुछ चहेते व्यक्तियों के नाम पर जॉब कार्ड भरकर, बिना किसी कार्य के उनकी उपस्थिति दर्शाकर भुगतान लिया जाता है। वहीं, वास्तविक कार्य करने वाले दिहाड़ी मजदूरों का कहीं कोई उल्लेख नहीं होता। यह कृत्य भारतीय दंड संहिता की धारा 420 (ठगी), 467 (जालसाजी), 468 (धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाजी), और 120बी (षड्यंत्र) के अंतर्गत दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है।
तकनीकी सहमति: जे.ई. की संदिग्ध भूमिका
मनरेगा के कार्यों की गुणवत्ता एवं मानक निर्धारण हेतु तैनात जूनियर इंजीनियर (जे.ई.) की भूमिका भी संदेह के घेरे में है। ग्राम प्रधान एवं सचिव की मिलीभगत से जे.ई. द्वारा कार्यों को बिना स्थल निरीक्षण के पूर्ण मानते हुए स्वीकृति देना, भ्रष्ट आचरण की पुष्टि करता है। इन मानक विहीन कार्यों का सत्यापन न होना यह प्रमाणित करता है कि सम्पूर्ण प्रक्रिया एक गठजोड़ के तहत संचालित हो रही है।
लोकतांत्रिक भय और विरोध की दमन नीति
जिन ग्रामवासियों ने इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध स्वर उठाने का साहस किया, उन्हें ग्राम प्रधान व उसके गुर्गों द्वारा सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया। “तुम्हें हमारी ही चोरी क्यों दिख रही है?” जैसे जुमलों के माध्यम से शिकायतकर्ताओं की वैध आपत्तियों को मजाक बनाकर दबा दिया जाता है। ग्राम प्रधान द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि यदि शीर्ष स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक भ्रष्टाचार व्याप्त है, तो सबसे निचले पायदान पर कार्यरत व्यक्ति की ही ईमानदारी क्यों जांची जा रही है।
यह मानसिकता लोकतंत्र की नींव को खोखला करती है, जहाँ व्यवस्था की जवाबदेही न होकर ‘सब चोर हैं’ की भावना से भ्रष्टाचार को तर्कसंगत ठहराने का प्रयास किया जाता है।
प्रशासनिक चुप्पी और जवाबदेही का अभाव
सवाल यह उठता है कि क्या बी.डी.ओ., ए.डी.ओ. (पंचायत), डी.डी.ओ., सी.डी.ओ., और अंततः जिलाधिकारी को इन अनियमितताओं की जानकारी नहीं है? या फिर उनकी चुप्पी इस भ्रष्टाचार में अप्रत्यक्ष संलिप्तता का संकेत देती है?
मनरेगा जैसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण अधिनियम की विफलता, दरअसल प्रशासनिक और राजनैतिक इच्छा-शक्ति की विफलता है। योजनाएं जमीनी स्तर तक पहुँचने से पूर्व ही बंदरबांट का शिकार हो जाती हैं।
कानूनी दृष्टिकोण से संभावित कार्रवाई
इस प्रकार के संगठित अपराधों पर कठोर दंडात्मक कार्यवाही आवश्यक है। जिला प्रशासन यदि चाह ले तो संबंधित ग्राम प्रधान, सचिव, जे.ई. और अन्य संलिप्त अधिकारियों के विरुद्ध:
- एफ.आई.आर. दर्ज कर भारतीय दंड संहिता की उपरोक्त धाराओं के अंतर्गत मुकदमा पंजीकृत कर सकता है।
- दोषियों की सेवा समाप्ति या निलंबन जैसी विभागीय कार्यवाही हो सकती है।
- डी.एम. स्तर से गठित विशेष जांच दल (SIT) द्वारा ग्राम स्तरीय कार्यों का ऑडिट करवाया जा सकता है।
- जॉबकार्ड की रैंडम सत्यापन प्रक्रिया द्वारा फर्जी हाजिरी की जांच संभव है।
निष्कर्ष: ‘अंधेर नगरी’ में ‘चौपट तंत्र’ का बोलबाला
जौनपुर की इन ग्राम सभाओं की स्थिति आज किसी ‘अंधेर नगरी’ से कम नहीं, जहाँ न कोई न्यायिक भय है, न प्रशासनिक उत्तरदायित्व। यह ज़रूरी हो गया है कि उच्च न्यायालय अथवा राज्य सरकार इस पर स्वतः संज्ञान ले और जमीनी हकीकत का पर्दाफाश कर ग्रामीण भारत की रीढ़ मानी जाने वाली योजनाओं को पुनः पटरी पर लाए।
जनता पूछती है:
“क्या लोकतंत्र में ग्राम प्रधान ही अंतिम राजा है?”
“क्या सरकारी धन के दुरुपयोग पर प्रशासन मौन रहकर संलिप्त नहीं हो रहा?”
“क्या योजनाओं का लाभ केवल ‘चयनित’ लोगों तक सीमित रहेगा?”
यदि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया गया, तो आने वाले समय में शासन-प्रशासन की विश्वसनीयता पर गहरा प्रश्नचिह्न लगना तय है।
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